एक छोटे कस्बे मे एक व्यक्ति ने अपना होटेल व्यवसाय शुरु करने का सोचा जिसमे बार का भी प्रावधान था. सन्योग से प्रस्तावित होटेल के ठीक सामने एक मन्दिर था. मन्दिर मे भक्तो का तांता लगा रहता था और भजन कीर्तन चलता रहता था. जैसे ही भक्तो को बार खुलने की खबर मिली इसका विरोध प्रारम्भ हो गया. मन्दिर के मठाधीशो तथा भक्तो ने बार के विरोध मे जोरदार अभियान छेड दिया. दिन भर ईश्वर से प्रार्थना और कीर्तन के दौर चलने लगे. उनका विश्वास था कि इससे होटेल व बार के खुलने मे रुकावट अवश्य आएगी. साथ ही बार निर्माण का कार्य भी जोरशोर से चल रहा था. जब होटेल का निर्माण लगभग खत्म होने वाला था, अचानक एक दिन निर्माणाधीन भवन पर बिजली गिरी और वह ध्वस्त हो गया. भक्तो की खुशी की सीमा नही रही और वे दावा करने लगे कि यह उनकी पूजा अर्चना व प्रार्थना के कारण हुआ है.
अपने नुकसान से दुखी बार मालिक ने मठाधीशो तथा भक्तो के विरुद्ध न्यायालय की शरण ली. उसका मानना था कि इनकी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कोशिशो से यह घटना घटित हुई है तथा उनकी पूजा अर्चना व प्रार्थना के कारण ही ऐसा हुआ है. जब न्यायालय ने इस मामले मे बार विरोधियो का पक्ष जानना चाहा तो उन्होने समस्त आरोपो से इंकार किया. उनका कहना था कि इसमे उनका कोई दोष नही है और इस तरह पूजा अथवा प्रार्थना से बिजली नही गिरा करती है. यह बार मालिक का दुर्भाग्य है जो इस तरह का दैवीय प्रकोप हुआ है.
न्यायाधीश सोच रहे थे कि यह कैसी विचित्र विड्म्बना है, कि एक तरफ बार मालिक है जिसे भक्तो की पूजा व प्रार्थना पर पुरा विश्वास है और दुसरी तरफ मन्दिर के भक्त और पुजारी है, जिन्हे अपनी ही पूजा व प्रार्थना पर विश्वास नही रहा है.
सोमवार, 22 मार्च 2010
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