रविवार, 21 मार्च 2010

हमने भी एक ब्रिफकेस खरीदा
विजय रांगणेकर

चमचमाते ब्रिफकेस की कल्पना से किसी टॉप एक्सीक़्युटिव का या धांसू फिल्म के स्मगलरो का द्रष्य सामने आ जाता है. मेरा मानना है कि हाथ मे ब्रिफकेस होने से व्यक्तित्व अपने आप निखर जाता है. मेरी भी शुरू से ख्वाहिश रही है कि एक अदद ब्रिफकेस मेरे पास भी हो.
पिछले दस वर्षो से मै ब्रिफकेस की जगह एक झोले से काम चला रहा था. अब उसकी हालत इतनी दयनीय हो चली थी कि लोंगो को कई बार भ्रम होता था कि झोला नही बल्कि कुत्ते का पिल्ला मेरे हाथ मे है. मुझ मे हीन भावना घर करती जा रही थी के मेरे व्यक्तित्व का विकास इस झोले की वजह से ही रूका है. अत: इस बार वेतन मिलते ही रास्ते मे एक बढिया ब्रिफकेस खरीदता हुआ घर पहुंचा. पत्नि कहने लगी उन्हे अन्दर तो बुलाइए. मैने पूछा किसको ? वे कहने लगी, जिनका ब्रिफकेस है. क्या वे बाहर ही खडे रहेंगे? मैने शान से कहा कि जिनका यह ब्रिफकेस है वे आपके सामने बैठे है. उन्होने एकदम झपट कर वेतन का लिफाफा अपने हाथ मे लिया और गिनने लगी. इस बीच मै पारे को उपर चढ्ते देख रहा था. वे एकदम आगबबुला हो उठी कि दो पत्र सम्पादक के नाम क्या छप गये अपने आप को मुंशी प्रेमचन्द समझने लगे. झोला पुराना हो गया था तो नया खरीद लेते, ब्रिफकेस खरीदने की क्या जरूरत थी. इसे अभी इसी वक्त वापस करके आओ. सम्पादक के नाम छपे पत्रो की कतरने तो जेब मे भी रखी जा सकती है.

मैने पुन: प्रार्थना की कि मै पूरा महिना पैदल आफिस जाउंगा ताकि पेट्रोल की बचत हो सके और अधिक से अधिक लोंगो के सामने ब्रिफकेस का प्रदर्शन भी. मेरा उतरा हुआ चेहरा देखकर आखिर उन्होने इजाजत दे ही दी. रात भर मै सोचता रहा कि किस प्रकार मै ब्रिफकेस लेकर निकलूगा और लोग ईर्ष्या और अचरज से देखेंगे. सुबह एक घंटा ब्रिफकेस लेकर चलने का अभ्यास किया और् आठ बजे ही आफिस के लिये निकल पडा.
रास्ते मे एक मित्र मिले. पुछ्ने लगे इतनी सुबह क्या सब्जी लेने जा रहे हो. मैने कहा के नही भाई, आफिस जा रहा हू. इतने मे उनकी निगाह मेरे ब्रिफकेस पर पडी. हालांकि इसके लिये मुझे काफी प्रयास करना पडा. फिर पूछने लगे कि आज इम्प्रेशन जमाने के लिये ये किसका मांगकर लाये हो. मैने कहा कि भाई, मेरा ही है, कल ही खरीदा है. तब उन्होने जिज्ञासा प्रकट की कि क्या वो पुरानी स्कूटर बेच दी. बैंक मे क्लर्क की नौकरी और ब्रिफकेस का तालमेल उन्हे जमा नही. मैने कहा कि आप अपना काम कीजिए, सुबह सुबह मेरा मूड मत बिगाडिए.
धीरे धीरे नपेतुले कदम रखता हुआ एम जी रोड पर पहुंचा. यहा पर कई जानी अनजानी आंखे घूरने लगी. उनसे साफ साफ सन्देह टपक रहा था. ग़ान्धी हाल तक पहुंचते ही हिम्मत जबाब देने लगी. दस बज रहे थे. हाजरी रजिस्टर पर क्रास लगने के डर से एक टेम्पो को रूकने का इशारा किया. टेम्पो वाले ने व्यंगात्मक मुस्कान बिखेरते हुए बिठा लिया. उसे भी शायद ब्रिफकेस वाले का टेम्पो मे बैठना जमा नही या उसे भी ब्रिफकेस मेरा होने पर सन्देह रहा होगा.

आफिस पहुंच कर काउंटर पर ब्रिफकेस रखकर अपना काम शुरू किया. अन्य स्टाफ सदस्य बीच बीच मे आकर पूछ रहे थे कि कोइ ग्राहक भूल गया है क्या ? मैने सोचा कि ब्रिफकेस उठा कर आफिस का एक चक्कर लगा लिय जाये ताकि अधिक से अधिक लोग देख ले. इस बीच् एक मित्र पूछ बैठे कि किसका है ? मैने गुस्से से कहा कि क्या मै नही खरीद सकता ? वे बोले, ऍसी बात नही है. लेकिन रोज मून्गफली खाने वाला एकदम काजु खाना शुरू कर दे तो अचरज तो होगा ही. कल तक तो आप वो पिल्लेनुमा झोला लाते थे और आज.... मैने कहा कि आजकल मै लेखक बनता जा रहा हू, सम्पादक के नाम दो पत्र भी छप चुके है. वे निश्चित रूप से सोच रहे होंगे कि अच्छा हुआ रास्ते मे नाल पडी नही मिली वरना घोडे पर ही आफिस आते.
क्या बताऊ, क्या क्या नही सुना मैने इस ब्रिफकेस की खातिर. लेकिन यह तय है कि यह ब्रिफकेस मैने ही खरीदा है. पूरी तरह मेरा है. विश्वास न हो तो खोल कर देख ले. मेरा एतिहासिक झोला भी इसी ब्रिफकेस के अन्दर है, सम्पादक के नाम छपे दो पत्रो के साथ.

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