लघुकथा
परदादा
विजय रांगणेकर
सीमा पर तैनात उस सैनिक को लम्बे अर्से बाद अपने घर जाने के लिये अवकाश स्वीकृत हुआ था. दूरदराज के कस्बे मे मे स्थित घर जाते समय कुछ विशेष खरीदने के लिहाज से वह एक शोरुम पर पहुंचा. जहा उसे एक आदमकद आकार का भव्य पोर्टेट पसन्द आया. चित्र मे एक वृध्द, सैनिक वेशभूषा मे, रौबीला चेहरा, घनी बडी मुछे, सीने पर लट्के अनेक मेडल व शस्त्रो से सज्जित काफी प्रभावशाली प्रतीत हो रहा था. पोर्टेट की कीमत पूछने पर दुकानदार ने पांच सौ रुपये बताई. थोडा मोलभाव करने पर वह चार सौ पचास रुपये मे देने को तैय्यार हुआ. चुंकि सैनिक के पास मात्र चार सौ रुपये थे, अत: उसने वह पोर्टेट खरीदने का विचार त्याग दिया.
कुछ वर्षो बाद जब वह पास के गांव मे रहने वाले अपने अन्य सैनिक मित्र के यहा गया, तो उसे वही पोर्टेट मित्र के ड्राइंग रुम मे टंगा हुआ दिखाई दिया. वह चित्र देखकर कुछ कहता उसके पहले ही उसका मित्र चित्र का विवरण देते हुए कहने लगा कि यह मेरे परदादा का चित्र है जो काफी बहादुर थे. द्वितिय विश्वयुद्ध मे उन्होने दुश्मनो के छक्के छुडा दिये थे. उन्हे शौर्य एवम वीरता के लिये अनैक मेडल मिले थे, आदि आदि. सैनिक मन ही मन सोच रहा था कि यदि उस दिन मुझे पचास रुपये कम नही पडे होते तो आज ये मेरे परदादा होते और यह पोर्टेट मेरे घर कि शोभा बढा रहा होता.
सोमवार, 22 मार्च 2010
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हिन्दी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखें अच्छा पढ़ें
बी एस पाबला
बहुत बढिया..लेखन की त्रुटियों को पोस्ट करने से पहले सुधार लिया करें, पढने वाले को खटकता है.
जवाब देंहटाएंhttp://samvedanakeswar.blogspot.com
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
जवाब देंहटाएंकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
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