हास्य-व्यंग्य
“कोलम्बस विवाहित होता तो आज अमेरिका नही होता”
विजय रांगणेकर
कोलम्बस ने अमेरिका की खोज की थी और उसका नाम इतिहास मे दर्ज हो गया था. मेरी भी हमेशा से ये ख्वाईश रही है कि मै भी ऐसा ही कुछ काम कर दिखाऊं कि लोग मेरी (अ)सन्दिग्ध प्रतिभा का लोहा माने.
कुछ ऐसे ही किसी छोटे मोटे देश की खोज का इरादा लिये एक दिन मैं तैय्यार होकर् घर से निकलने लगा. अचरज से पत्नि ने पूछा “इतनी सुबह सुबह कहाँ जा रहे हो? क्या बैंक के काम से जा रहे हो? और कौन जा रहा है साथ में?”
मैने कहा कि नहीं, न मैं बैंक के काम से जा रहा हू न घरेलु काम से बल्कि मेरा एकाध देश खोज निकालने का विचार है उसी लिये जा रहा हू.
“कब तक लौटोगे ? रात का खाना घर पर खाओगे कि नही ? मैंने कहा कि मैं एक ऐतिहासिक और बडे काम से जा रहा हू और तुम मेरा तिलक कर बिदा करने के बजाय फिजूल सवाल पर सवाल कर रही हो.
पत्नी कहने लगी “बिजली का बिल भरना है, चीकु की फीस जमा करने स्कूल जाना है. रेणु का होमवर्क कराना है, गैस बुक करानी है, चक्की से गेहूँ पिसवाकर लाना है. ये सब काम कौन करेगा ? बस से जा रहे हो या टैक्सी से ? किसी छुट्टी के दिन चलते तो मैं भी आपके साथ चलती”.
मैने कहा कि मै कोई पिकनिक पर नही जा रहा हूं. ये बडे खतरे का काम है और मुझे अकेले ही जाना होगा. वह बोली “अकेले तो आप सब्जी लेने भी नही जाते हो. जरूर दोस्तों के साथ कहीं ठिलवई करने जा रहे होगे. आप दोस्त लोग ऐसे अकेले जाने का प्रोग्राम बनाते ही क्यों हो. परिवार सहित घूमने का प्रोग्राम क्यों नही बनाते.”
मैंने कहा कि तुम मुझे गंभीरता से नही ले रही हो, मैं किसी के साथ नही बल्कि अकेला ही जा रहा हू.
तुरंत पत्नि बोली “कई दिनो से मैं देख रही हू कि आप को घर से ज्यादा घर के बाहर अच्छा लगता है और घरेलु कामों से बचने के लिये ही आपने यह खोज वोज का बहाना ढूंढा है. वैसे इस तरह की नौटंकी तो आप पहले भी करते रहे हो पर मुझे समझ में नही आ रहा है कि इस बार ये किसी देश की डिस्कवरी-विसकवरी का भूत आप पर क्यों सवार हो गया.
मुझे आप पर शक है. कुछ दिनों से आप के रंग ढंग भी अलग ही दिख रहे है. घर में मुहँ लटकाए घूमते हो, लेकिन बाहर जाते समय काफी खुश दिखते हो. घर मे अस्तव्यस्त रहते हो लेकिन बाहर बडे बन ठन कर जाते हो. हमेशा गाने गुनगुनाते रह्ते हो. आफिस में परफ्युम लगाकर जाने लगे हो. आफिस से लौटने पर आपके टिफिन बॉक्स मे ऐसी चीजो के अवशेष दिखते है जो मैने दिये ही नही थे. मुझे तो लगता है इस बार आपका कोई दूसरा ही चक्कर है.”
मैंने कहा कि तुम्हारी सभी आशंकाए गलत है मैं बहुत ही महत्वपूर्ण काम से जा रहा हूँ. यदि मैं एकाध देश खोजने मे कामयाब रहा तो तुम्हें मुझ पर गर्व होगा. “आप से अपने मोजे तक तो खोजे नही जाते, नया देश क्या खोजोगे”.
खैर आप मेरी सुनोगे थोडी, एक बार जो दिमाग मे घुस जाय आप कर के ही मानोगे. “अच्छा यह बताओ कि वहाँ क्या अच्छा मिलता है? मेरे लिये वहाँ से क्या लाओगे”. मैने कहा कि मैं किसी पर्यटन स्थल या शॉपिंग मॉल में नही जा रहा हूं. तुम प्रभु चावला जैसे सवाल पर सवाल करना बन्द करो और मुझे अपने मिशन पर निकलने दो.
“अच्छा आपने जाने की ठान ही ली है तो जाओ, कहा सुना माफ करना और फोन करते रहना. अपने बारे मे ज्यादा मुगालते मे मत रहना, कुछ मिलना जाना नही है. जल्दी ही कुछ मिल जाय तो ठीक वरना तुरंत घर लौट आना. काफी काम इकठ्ठा हो जायेंगे तब तक”.
कोलम्बस निश्चित रूप से अविवाहित रहा होगा इसलिये अमेरिका जैसे दूरस्थ देश की खोज कर पाया, अन्यथा किसी विवाहित पुरुष के लिये अमेरिका जैसे देश तो क्या किसी मोहल्ले की खोज करने के लिये भी घर् से निकलना आसान नही है.
मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
शनि का प्रकोप
शनि का प्रकोप
विजय रांगणेकर
उसका समय काफी खराब चल रहा था. निरंतर बीमारी और आर्थिक तंगी ने उसे काफी परेशान कर रखा था. सभी उपाय व उपचार बेकार रहे और वह निराश हो चला था, तभी उसकी मुलाकात एक स्वामीजी से हुई जो पूजा पाठ के साथ ही ज्योतिष मे भी दखल रखते थे. स्वामीजी ने उसकी स्थिति और् समस्या का अध्ययन करने के पश्चात् उस पर शनि का प्रकोप होना बताया. उसने स्वामीजी से शनि के प्रभाव से मुक्त होने का उपाय जानना चाहा. स्वामीजी बोले “ मै अपने पूजा पाठ के प्रभाव से शनि के दुषप्रभाव को नष्ट कर दूंगा, परंतु इस प्रक्रिया मे लगभग एक हजार रूपए का खर्च आएगा.
उसने कहा “मेरे पास तो एक हजार रूपए नही है” तब स्वामीजी बोले कि यदि कम रूपए भी होंगे तो कार्य सम्पन्न करा दूंगा, तुम सात सौ रूपए का इंतजाम कर लो. उसने फिर कहा “ मेरे पास् तो सात सौ रूपए का भी जुगाड नही है”. उसकी आर्थिक स्थिति पर तरस खाते हुए व स्वामीजी पांच सौ, तीन सौ, एक सौ से उतरते हुए पचास रूपए पर आए. परंतु उसने पचास रूपए जुटा पाने मे भी अपनी असमर्थता व्यक्त की.
आखिर अपने भक्त को निराश नही लौटने देने व हाथ आए शिकार को नही छोडने के लिहाज से स्वामीजी बोले “अच्छा, तुम पांच रूपए दे दो, मै शार्टकट मे पूजा निपटा देता हू. वह बोला कि मेरे पास तो पांच रूपए भी नही है. तब स्वामीजी बोले “फिर तुम निश्चिंत्त होकर रहो. तुम्हे किसी पूजा पाठ की जरूरत नही है. जिसके पास पांच रूपए भी नही हो उसका तो शनि भी कुछ नही बिगाड सकता”
विजय रांगणेकर
उसका समय काफी खराब चल रहा था. निरंतर बीमारी और आर्थिक तंगी ने उसे काफी परेशान कर रखा था. सभी उपाय व उपचार बेकार रहे और वह निराश हो चला था, तभी उसकी मुलाकात एक स्वामीजी से हुई जो पूजा पाठ के साथ ही ज्योतिष मे भी दखल रखते थे. स्वामीजी ने उसकी स्थिति और् समस्या का अध्ययन करने के पश्चात् उस पर शनि का प्रकोप होना बताया. उसने स्वामीजी से शनि के प्रभाव से मुक्त होने का उपाय जानना चाहा. स्वामीजी बोले “ मै अपने पूजा पाठ के प्रभाव से शनि के दुषप्रभाव को नष्ट कर दूंगा, परंतु इस प्रक्रिया मे लगभग एक हजार रूपए का खर्च आएगा.
उसने कहा “मेरे पास तो एक हजार रूपए नही है” तब स्वामीजी बोले कि यदि कम रूपए भी होंगे तो कार्य सम्पन्न करा दूंगा, तुम सात सौ रूपए का इंतजाम कर लो. उसने फिर कहा “ मेरे पास् तो सात सौ रूपए का भी जुगाड नही है”. उसकी आर्थिक स्थिति पर तरस खाते हुए व स्वामीजी पांच सौ, तीन सौ, एक सौ से उतरते हुए पचास रूपए पर आए. परंतु उसने पचास रूपए जुटा पाने मे भी अपनी असमर्थता व्यक्त की.
आखिर अपने भक्त को निराश नही लौटने देने व हाथ आए शिकार को नही छोडने के लिहाज से स्वामीजी बोले “अच्छा, तुम पांच रूपए दे दो, मै शार्टकट मे पूजा निपटा देता हू. वह बोला कि मेरे पास तो पांच रूपए भी नही है. तब स्वामीजी बोले “फिर तुम निश्चिंत्त होकर रहो. तुम्हे किसी पूजा पाठ की जरूरत नही है. जिसके पास पांच रूपए भी नही हो उसका तो शनि भी कुछ नही बिगाड सकता”
सोमवार, 22 मार्च 2010
परदादा
लघुकथा
परदादा
विजय रांगणेकर
सीमा पर तैनात उस सैनिक को लम्बे अर्से बाद अपने घर जाने के लिये अवकाश स्वीकृत हुआ था. दूरदराज के कस्बे मे मे स्थित घर जाते समय कुछ विशेष खरीदने के लिहाज से वह एक शोरुम पर पहुंचा. जहा उसे एक आदमकद आकार का भव्य पोर्टेट पसन्द आया. चित्र मे एक वृध्द, सैनिक वेशभूषा मे, रौबीला चेहरा, घनी बडी मुछे, सीने पर लट्के अनेक मेडल व शस्त्रो से सज्जित काफी प्रभावशाली प्रतीत हो रहा था. पोर्टेट की कीमत पूछने पर दुकानदार ने पांच सौ रुपये बताई. थोडा मोलभाव करने पर वह चार सौ पचास रुपये मे देने को तैय्यार हुआ. चुंकि सैनिक के पास मात्र चार सौ रुपये थे, अत: उसने वह पोर्टेट खरीदने का विचार त्याग दिया.
कुछ वर्षो बाद जब वह पास के गांव मे रहने वाले अपने अन्य सैनिक मित्र के यहा गया, तो उसे वही पोर्टेट मित्र के ड्राइंग रुम मे टंगा हुआ दिखाई दिया. वह चित्र देखकर कुछ कहता उसके पहले ही उसका मित्र चित्र का विवरण देते हुए कहने लगा कि यह मेरे परदादा का चित्र है जो काफी बहादुर थे. द्वितिय विश्वयुद्ध मे उन्होने दुश्मनो के छक्के छुडा दिये थे. उन्हे शौर्य एवम वीरता के लिये अनैक मेडल मिले थे, आदि आदि. सैनिक मन ही मन सोच रहा था कि यदि उस दिन मुझे पचास रुपये कम नही पडे होते तो आज ये मेरे परदादा होते और यह पोर्टेट मेरे घर कि शोभा बढा रहा होता.
परदादा
विजय रांगणेकर
सीमा पर तैनात उस सैनिक को लम्बे अर्से बाद अपने घर जाने के लिये अवकाश स्वीकृत हुआ था. दूरदराज के कस्बे मे मे स्थित घर जाते समय कुछ विशेष खरीदने के लिहाज से वह एक शोरुम पर पहुंचा. जहा उसे एक आदमकद आकार का भव्य पोर्टेट पसन्द आया. चित्र मे एक वृध्द, सैनिक वेशभूषा मे, रौबीला चेहरा, घनी बडी मुछे, सीने पर लट्के अनेक मेडल व शस्त्रो से सज्जित काफी प्रभावशाली प्रतीत हो रहा था. पोर्टेट की कीमत पूछने पर दुकानदार ने पांच सौ रुपये बताई. थोडा मोलभाव करने पर वह चार सौ पचास रुपये मे देने को तैय्यार हुआ. चुंकि सैनिक के पास मात्र चार सौ रुपये थे, अत: उसने वह पोर्टेट खरीदने का विचार त्याग दिया.
कुछ वर्षो बाद जब वह पास के गांव मे रहने वाले अपने अन्य सैनिक मित्र के यहा गया, तो उसे वही पोर्टेट मित्र के ड्राइंग रुम मे टंगा हुआ दिखाई दिया. वह चित्र देखकर कुछ कहता उसके पहले ही उसका मित्र चित्र का विवरण देते हुए कहने लगा कि यह मेरे परदादा का चित्र है जो काफी बहादुर थे. द्वितिय विश्वयुद्ध मे उन्होने दुश्मनो के छक्के छुडा दिये थे. उन्हे शौर्य एवम वीरता के लिये अनैक मेडल मिले थे, आदि आदि. सैनिक मन ही मन सोच रहा था कि यदि उस दिन मुझे पचास रुपये कम नही पडे होते तो आज ये मेरे परदादा होते और यह पोर्टेट मेरे घर कि शोभा बढा रहा होता.
बदलताविश्वास
एक छोटे कस्बे मे एक व्यक्ति ने अपना होटेल व्यवसाय शुरु करने का सोचा जिसमे बार का भी प्रावधान था. सन्योग से प्रस्तावित होटेल के ठीक सामने एक मन्दिर था. मन्दिर मे भक्तो का तांता लगा रहता था और भजन कीर्तन चलता रहता था. जैसे ही भक्तो को बार खुलने की खबर मिली इसका विरोध प्रारम्भ हो गया. मन्दिर के मठाधीशो तथा भक्तो ने बार के विरोध मे जोरदार अभियान छेड दिया. दिन भर ईश्वर से प्रार्थना और कीर्तन के दौर चलने लगे. उनका विश्वास था कि इससे होटेल व बार के खुलने मे रुकावट अवश्य आएगी. साथ ही बार निर्माण का कार्य भी जोरशोर से चल रहा था. जब होटेल का निर्माण लगभग खत्म होने वाला था, अचानक एक दिन निर्माणाधीन भवन पर बिजली गिरी और वह ध्वस्त हो गया. भक्तो की खुशी की सीमा नही रही और वे दावा करने लगे कि यह उनकी पूजा अर्चना व प्रार्थना के कारण हुआ है.
अपने नुकसान से दुखी बार मालिक ने मठाधीशो तथा भक्तो के विरुद्ध न्यायालय की शरण ली. उसका मानना था कि इनकी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कोशिशो से यह घटना घटित हुई है तथा उनकी पूजा अर्चना व प्रार्थना के कारण ही ऐसा हुआ है. जब न्यायालय ने इस मामले मे बार विरोधियो का पक्ष जानना चाहा तो उन्होने समस्त आरोपो से इंकार किया. उनका कहना था कि इसमे उनका कोई दोष नही है और इस तरह पूजा अथवा प्रार्थना से बिजली नही गिरा करती है. यह बार मालिक का दुर्भाग्य है जो इस तरह का दैवीय प्रकोप हुआ है.
न्यायाधीश सोच रहे थे कि यह कैसी विचित्र विड्म्बना है, कि एक तरफ बार मालिक है जिसे भक्तो की पूजा व प्रार्थना पर पुरा विश्वास है और दुसरी तरफ मन्दिर के भक्त और पुजारी है, जिन्हे अपनी ही पूजा व प्रार्थना पर विश्वास नही रहा है.
अपने नुकसान से दुखी बार मालिक ने मठाधीशो तथा भक्तो के विरुद्ध न्यायालय की शरण ली. उसका मानना था कि इनकी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कोशिशो से यह घटना घटित हुई है तथा उनकी पूजा अर्चना व प्रार्थना के कारण ही ऐसा हुआ है. जब न्यायालय ने इस मामले मे बार विरोधियो का पक्ष जानना चाहा तो उन्होने समस्त आरोपो से इंकार किया. उनका कहना था कि इसमे उनका कोई दोष नही है और इस तरह पूजा अथवा प्रार्थना से बिजली नही गिरा करती है. यह बार मालिक का दुर्भाग्य है जो इस तरह का दैवीय प्रकोप हुआ है.
न्यायाधीश सोच रहे थे कि यह कैसी विचित्र विड्म्बना है, कि एक तरफ बार मालिक है जिसे भक्तो की पूजा व प्रार्थना पर पुरा विश्वास है और दुसरी तरफ मन्दिर के भक्त और पुजारी है, जिन्हे अपनी ही पूजा व प्रार्थना पर विश्वास नही रहा है.
नईबहू
लघुकथा
नई बहु
श्रीमती मन्दाकिनि रांगणेकर
भरेपुरे परिवार मे नई बहु शादी होकर आई तो सभी ने उसका स्वागत किया तथा उसे बताया गया कि परिवार मे बेहद अच्छा वातावरण है और सभी मिलजुल कर रह्ते है. सभी अपना अपना काम करते है तथा काम को लेकर कभी कोई विवाद नही होता है. सभी ने उसे सहयोग का आश्वासन दिया और आशा व्यक्त की कि ऐसा ही वातावरण बना रहेगा. नई बहु ने अपने स्वागत के लिये धन्यवाद दिया और कहा कि वह ऐसे स्वस्थ वातावरण मे आकर अभिभुत है तथा वह नही चाहती कि उसके आने से किसी के कार्य अथवा दिनचर्या मे किसी तरह का व्यवधान आये, इसलिये वह किसी के कार्य मे हस्तक्शेप नही करेगी और सभी सदस्य अपना अपना काम, जो वे अब तक करते रहे है, खुशी खुशी करते रहे. ज़ो सदस्य अब तक खाना पकाता था वह खाना पकाता रहे, जो घर की सफाई करता था वह अपना सफाई कार्य जारी रखे. इसी तरह कपडे धोने तथा बरतन साफ करने का काम जिसके जिम्मे है वह आराम से करता रह सकता है. मै किसी को डिस्ट्अर्ब नही करुंगी. और घर का वातावरण इसी तरह सौहार्दपुर्ण बनाए रखने मे पुरा सहयोग करुंगी.
नई बहु
श्रीमती मन्दाकिनि रांगणेकर
भरेपुरे परिवार मे नई बहु शादी होकर आई तो सभी ने उसका स्वागत किया तथा उसे बताया गया कि परिवार मे बेहद अच्छा वातावरण है और सभी मिलजुल कर रह्ते है. सभी अपना अपना काम करते है तथा काम को लेकर कभी कोई विवाद नही होता है. सभी ने उसे सहयोग का आश्वासन दिया और आशा व्यक्त की कि ऐसा ही वातावरण बना रहेगा. नई बहु ने अपने स्वागत के लिये धन्यवाद दिया और कहा कि वह ऐसे स्वस्थ वातावरण मे आकर अभिभुत है तथा वह नही चाहती कि उसके आने से किसी के कार्य अथवा दिनचर्या मे किसी तरह का व्यवधान आये, इसलिये वह किसी के कार्य मे हस्तक्शेप नही करेगी और सभी सदस्य अपना अपना काम, जो वे अब तक करते रहे है, खुशी खुशी करते रहे. ज़ो सदस्य अब तक खाना पकाता था वह खाना पकाता रहे, जो घर की सफाई करता था वह अपना सफाई कार्य जारी रखे. इसी तरह कपडे धोने तथा बरतन साफ करने का काम जिसके जिम्मे है वह आराम से करता रह सकता है. मै किसी को डिस्ट्अर्ब नही करुंगी. और घर का वातावरण इसी तरह सौहार्दपुर्ण बनाए रखने मे पुरा सहयोग करुंगी.
रविवार, 21 मार्च 2010
हमने भी एक ब्रिफकेस खरीदा
विजय रांगणेकर
चमचमाते ब्रिफकेस की कल्पना से किसी टॉप एक्सीक़्युटिव का या धांसू फिल्म के स्मगलरो का द्रष्य सामने आ जाता है. मेरा मानना है कि हाथ मे ब्रिफकेस होने से व्यक्तित्व अपने आप निखर जाता है. मेरी भी शुरू से ख्वाहिश रही है कि एक अदद ब्रिफकेस मेरे पास भी हो.
पिछले दस वर्षो से मै ब्रिफकेस की जगह एक झोले से काम चला रहा था. अब उसकी हालत इतनी दयनीय हो चली थी कि लोंगो को कई बार भ्रम होता था कि झोला नही बल्कि कुत्ते का पिल्ला मेरे हाथ मे है. मुझ मे हीन भावना घर करती जा रही थी के मेरे व्यक्तित्व का विकास इस झोले की वजह से ही रूका है. अत: इस बार वेतन मिलते ही रास्ते मे एक बढिया ब्रिफकेस खरीदता हुआ घर पहुंचा. पत्नि कहने लगी उन्हे अन्दर तो बुलाइए. मैने पूछा किसको ? वे कहने लगी, जिनका ब्रिफकेस है. क्या वे बाहर ही खडे रहेंगे? मैने शान से कहा कि जिनका यह ब्रिफकेस है वे आपके सामने बैठे है. उन्होने एकदम झपट कर वेतन का लिफाफा अपने हाथ मे लिया और गिनने लगी. इस बीच मै पारे को उपर चढ्ते देख रहा था. वे एकदम आगबबुला हो उठी कि दो पत्र सम्पादक के नाम क्या छप गये अपने आप को मुंशी प्रेमचन्द समझने लगे. झोला पुराना हो गया था तो नया खरीद लेते, ब्रिफकेस खरीदने की क्या जरूरत थी. इसे अभी इसी वक्त वापस करके आओ. सम्पादक के नाम छपे पत्रो की कतरने तो जेब मे भी रखी जा सकती है.
मैने पुन: प्रार्थना की कि मै पूरा महिना पैदल आफिस जाउंगा ताकि पेट्रोल की बचत हो सके और अधिक से अधिक लोंगो के सामने ब्रिफकेस का प्रदर्शन भी. मेरा उतरा हुआ चेहरा देखकर आखिर उन्होने इजाजत दे ही दी. रात भर मै सोचता रहा कि किस प्रकार मै ब्रिफकेस लेकर निकलूगा और लोग ईर्ष्या और अचरज से देखेंगे. सुबह एक घंटा ब्रिफकेस लेकर चलने का अभ्यास किया और् आठ बजे ही आफिस के लिये निकल पडा.
रास्ते मे एक मित्र मिले. पुछ्ने लगे इतनी सुबह क्या सब्जी लेने जा रहे हो. मैने कहा के नही भाई, आफिस जा रहा हू. इतने मे उनकी निगाह मेरे ब्रिफकेस पर पडी. हालांकि इसके लिये मुझे काफी प्रयास करना पडा. फिर पूछने लगे कि आज इम्प्रेशन जमाने के लिये ये किसका मांगकर लाये हो. मैने कहा कि भाई, मेरा ही है, कल ही खरीदा है. तब उन्होने जिज्ञासा प्रकट की कि क्या वो पुरानी स्कूटर बेच दी. बैंक मे क्लर्क की नौकरी और ब्रिफकेस का तालमेल उन्हे जमा नही. मैने कहा कि आप अपना काम कीजिए, सुबह सुबह मेरा मूड मत बिगाडिए.
धीरे धीरे नपेतुले कदम रखता हुआ एम जी रोड पर पहुंचा. यहा पर कई जानी अनजानी आंखे घूरने लगी. उनसे साफ साफ सन्देह टपक रहा था. ग़ान्धी हाल तक पहुंचते ही हिम्मत जबाब देने लगी. दस बज रहे थे. हाजरी रजिस्टर पर क्रास लगने के डर से एक टेम्पो को रूकने का इशारा किया. टेम्पो वाले ने व्यंगात्मक मुस्कान बिखेरते हुए बिठा लिया. उसे भी शायद ब्रिफकेस वाले का टेम्पो मे बैठना जमा नही या उसे भी ब्रिफकेस मेरा होने पर सन्देह रहा होगा.
आफिस पहुंच कर काउंटर पर ब्रिफकेस रखकर अपना काम शुरू किया. अन्य स्टाफ सदस्य बीच बीच मे आकर पूछ रहे थे कि कोइ ग्राहक भूल गया है क्या ? मैने सोचा कि ब्रिफकेस उठा कर आफिस का एक चक्कर लगा लिय जाये ताकि अधिक से अधिक लोग देख ले. इस बीच् एक मित्र पूछ बैठे कि किसका है ? मैने गुस्से से कहा कि क्या मै नही खरीद सकता ? वे बोले, ऍसी बात नही है. लेकिन रोज मून्गफली खाने वाला एकदम काजु खाना शुरू कर दे तो अचरज तो होगा ही. कल तक तो आप वो पिल्लेनुमा झोला लाते थे और आज.... मैने कहा कि आजकल मै लेखक बनता जा रहा हू, सम्पादक के नाम दो पत्र भी छप चुके है. वे निश्चित रूप से सोच रहे होंगे कि अच्छा हुआ रास्ते मे नाल पडी नही मिली वरना घोडे पर ही आफिस आते.
क्या बताऊ, क्या क्या नही सुना मैने इस ब्रिफकेस की खातिर. लेकिन यह तय है कि यह ब्रिफकेस मैने ही खरीदा है. पूरी तरह मेरा है. विश्वास न हो तो खोल कर देख ले. मेरा एतिहासिक झोला भी इसी ब्रिफकेस के अन्दर है, सम्पादक के नाम छपे दो पत्रो के साथ.
विजय रांगणेकर
चमचमाते ब्रिफकेस की कल्पना से किसी टॉप एक्सीक़्युटिव का या धांसू फिल्म के स्मगलरो का द्रष्य सामने आ जाता है. मेरा मानना है कि हाथ मे ब्रिफकेस होने से व्यक्तित्व अपने आप निखर जाता है. मेरी भी शुरू से ख्वाहिश रही है कि एक अदद ब्रिफकेस मेरे पास भी हो.
पिछले दस वर्षो से मै ब्रिफकेस की जगह एक झोले से काम चला रहा था. अब उसकी हालत इतनी दयनीय हो चली थी कि लोंगो को कई बार भ्रम होता था कि झोला नही बल्कि कुत्ते का पिल्ला मेरे हाथ मे है. मुझ मे हीन भावना घर करती जा रही थी के मेरे व्यक्तित्व का विकास इस झोले की वजह से ही रूका है. अत: इस बार वेतन मिलते ही रास्ते मे एक बढिया ब्रिफकेस खरीदता हुआ घर पहुंचा. पत्नि कहने लगी उन्हे अन्दर तो बुलाइए. मैने पूछा किसको ? वे कहने लगी, जिनका ब्रिफकेस है. क्या वे बाहर ही खडे रहेंगे? मैने शान से कहा कि जिनका यह ब्रिफकेस है वे आपके सामने बैठे है. उन्होने एकदम झपट कर वेतन का लिफाफा अपने हाथ मे लिया और गिनने लगी. इस बीच मै पारे को उपर चढ्ते देख रहा था. वे एकदम आगबबुला हो उठी कि दो पत्र सम्पादक के नाम क्या छप गये अपने आप को मुंशी प्रेमचन्द समझने लगे. झोला पुराना हो गया था तो नया खरीद लेते, ब्रिफकेस खरीदने की क्या जरूरत थी. इसे अभी इसी वक्त वापस करके आओ. सम्पादक के नाम छपे पत्रो की कतरने तो जेब मे भी रखी जा सकती है.
मैने पुन: प्रार्थना की कि मै पूरा महिना पैदल आफिस जाउंगा ताकि पेट्रोल की बचत हो सके और अधिक से अधिक लोंगो के सामने ब्रिफकेस का प्रदर्शन भी. मेरा उतरा हुआ चेहरा देखकर आखिर उन्होने इजाजत दे ही दी. रात भर मै सोचता रहा कि किस प्रकार मै ब्रिफकेस लेकर निकलूगा और लोग ईर्ष्या और अचरज से देखेंगे. सुबह एक घंटा ब्रिफकेस लेकर चलने का अभ्यास किया और् आठ बजे ही आफिस के लिये निकल पडा.
रास्ते मे एक मित्र मिले. पुछ्ने लगे इतनी सुबह क्या सब्जी लेने जा रहे हो. मैने कहा के नही भाई, आफिस जा रहा हू. इतने मे उनकी निगाह मेरे ब्रिफकेस पर पडी. हालांकि इसके लिये मुझे काफी प्रयास करना पडा. फिर पूछने लगे कि आज इम्प्रेशन जमाने के लिये ये किसका मांगकर लाये हो. मैने कहा कि भाई, मेरा ही है, कल ही खरीदा है. तब उन्होने जिज्ञासा प्रकट की कि क्या वो पुरानी स्कूटर बेच दी. बैंक मे क्लर्क की नौकरी और ब्रिफकेस का तालमेल उन्हे जमा नही. मैने कहा कि आप अपना काम कीजिए, सुबह सुबह मेरा मूड मत बिगाडिए.
धीरे धीरे नपेतुले कदम रखता हुआ एम जी रोड पर पहुंचा. यहा पर कई जानी अनजानी आंखे घूरने लगी. उनसे साफ साफ सन्देह टपक रहा था. ग़ान्धी हाल तक पहुंचते ही हिम्मत जबाब देने लगी. दस बज रहे थे. हाजरी रजिस्टर पर क्रास लगने के डर से एक टेम्पो को रूकने का इशारा किया. टेम्पो वाले ने व्यंगात्मक मुस्कान बिखेरते हुए बिठा लिया. उसे भी शायद ब्रिफकेस वाले का टेम्पो मे बैठना जमा नही या उसे भी ब्रिफकेस मेरा होने पर सन्देह रहा होगा.
आफिस पहुंच कर काउंटर पर ब्रिफकेस रखकर अपना काम शुरू किया. अन्य स्टाफ सदस्य बीच बीच मे आकर पूछ रहे थे कि कोइ ग्राहक भूल गया है क्या ? मैने सोचा कि ब्रिफकेस उठा कर आफिस का एक चक्कर लगा लिय जाये ताकि अधिक से अधिक लोग देख ले. इस बीच् एक मित्र पूछ बैठे कि किसका है ? मैने गुस्से से कहा कि क्या मै नही खरीद सकता ? वे बोले, ऍसी बात नही है. लेकिन रोज मून्गफली खाने वाला एकदम काजु खाना शुरू कर दे तो अचरज तो होगा ही. कल तक तो आप वो पिल्लेनुमा झोला लाते थे और आज.... मैने कहा कि आजकल मै लेखक बनता जा रहा हू, सम्पादक के नाम दो पत्र भी छप चुके है. वे निश्चित रूप से सोच रहे होंगे कि अच्छा हुआ रास्ते मे नाल पडी नही मिली वरना घोडे पर ही आफिस आते.
क्या बताऊ, क्या क्या नही सुना मैने इस ब्रिफकेस की खातिर. लेकिन यह तय है कि यह ब्रिफकेस मैने ही खरीदा है. पूरी तरह मेरा है. विश्वास न हो तो खोल कर देख ले. मेरा एतिहासिक झोला भी इसी ब्रिफकेस के अन्दर है, सम्पादक के नाम छपे दो पत्रो के साथ.
बुधवार, 17 मार्च 2010
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